Monday 12 May 2014

Why the Hindi Belt needs its own development discourse


अब हिंदी पट्टी विकास की भाषा भी गढे            मृणाल पाण्डे

वाराणसी में गंगा तट पर खडा हर तर्रार खबरची जनता से यही सवाल करता दिखा कि चुनाव 2014 का मुख्य मुद्दा उनकी नज़र में क्या है : धर्म, जाति या विकास ? अधिकतर का जवाब था विकास ! अंतत: यह चुनाव विकास के मुद्दे पर कितना लडा गया कितना नहीं इस पर सुधीजन बरसों माथापच्ची कर सकते हैं | अलबत्ता इन पंक्तियों की लेखिका को लंबे समय से यह बात विस्मित करती रही है कि विकास की इतनी बातें करने के बाद भी हमारे हर विचारधारा के स्वैच्छिक समाजसेवी, दलीय नेता और अर्थशास्त्री विकास की सटीक परिभाषा या विवरण के लिये कमोबेश विदेशी अकादमिक पीठों,अथवा यू एन द्वारा पर्यावरण, सार्वजनिक निर्माण अथवा खाद्यसुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण मसलों पर कराये तथ्यों और ब्योरों को ही (अधिकतर) अंग्रेज़ी या ( चुनावी जनसभाओं में) भारतीय भाषाओं में अनूदित करवा कर क्यों परोस रहे हैं ?हिंदी में महिला विमर्श , यौन संबंधों और वर्जनाओं, मानवाधिकारों या फिर आर्थिक मोर्चों पर पर्यावरण और कृषि तथा उद्योग के विकास पर जो कुछ लिखा जा रहा है, उसमें से अधिकतर इन्हीं विचारों के अंग्रेज़ी से किये और काफी अटपटे अनुवाद की जुगाली भर क्यों प्रतीत होता है ? उधार के विचार स्वभाषा

में अनुवाद से सटीक बन जायें यह नहीं होता | हिंदीपट्टी को अपनी ज़रूरत मुताबिक विकास चाहिये तो पहले उसे दिमाग में देसी भाषा में साफ अवधारणायें अपने लिये गढनी होंगी |

यह दौर राजनीति ही नहीं, मीडिया में भी उस किस्म की आधुनिकता का है जिसके दबाव राज या समाज को उसके ज़मीनी जैविक गढन के आधार पर नहीं, बल्कि विभिन्न औद्योगिक और राजनैतिक समीकरणों के हित स्वार्थ से बुनी गई विकास की परिकल्पना के नक्शे की मदद से साकार करते हैं | यही वजह है कि हम टिकाऊ विकास की बात करते हैं, जो अंग्रेज़ी के चालू सस्टेनेबल् डिवेलपमेंट शब्द का अविकल अनुवाद है | तनिक देसी दिमाग से सोचिये , विकास बुद्धि का हो कि शरीर का अथवा सभ्यता का, अपने यहाँ यह नदी की धारा सरीखी अनवरत चलनेवाली सनातन प्रक्रिया है जिसके दौरान बहुत कुछ बदलता , टूटता और कई बाहरी तत्वों से जुड उनके नये संस्करण रचता है | टिकाऊ विकास शब्द सुन कर तो लगता है कि हज़रते ‘दाग’ जहाँ बैठ गये, बैठ गये ! एक बार योजना आयोग के ठप्पे से दईमारे टिकाऊ विकास की सरकार द्वारा औपचारिक टेमप्लेट बना दी गई तो आम जनता के लिये वह भले ही हिब्रू भाषा जैसी दुरूहता लिये हो, बाबुओं द्वारा नखत की जगह नखत और तारे की जगह तारा लगाना अनिवार्य हो जाता है |

उत्तराखंड का ही उदाहरण लें | यह बात किसी से छुपी नहीं कि गये बरस वहाँ जो भयावह पर्यावरणीय त्रासदी आई उसके पीछे विकास के नाम पर लगातार बारूदी विस्फोट करने, नदियों की धारायें छेंकने और धार्मिक पर्यटन के विकास के लिये पर्यावरण की दृष्टि से बेहद संवेदनशील इलाके को लगातार जनसंकुल और आवाजाही की स्थली बनाने का कितना बडा हाथ था | बुज़ुर्ग बताते थे कि पहले केदारनाथ घाटी में शंखध्वनि करने पर भी पाबंदी थी कि इससे (पर्यावरण के) देवता रुष्ट होते हैं | एक भी देवदार ( देवदारु यानी देवताओं की लकडी) का पेड काटने से पहले न केवल वनदेवता से अनुमति माँगनी होती थी, बल्कि उसकी जगह नया पेड लगा कर उसके संवर्धन की व्यवस्था भी करना अनिवार्य था | पेड काटने को आरी का प्रयोग और कीमती लकडी को बडे पैमाने पर नदी मार्ग से मैदान भेज कर लाखों कमाने का व्यापार अंग्रेज़ों के साथ 1857 के बाद ही विकसित हुआ | फिर उत्तराखंड बना तो रातोंरात कुकुरमुत्ते सरीखे उगे नेताओं ने बिल्डरों को न्योत कर पर्यटन विकास को हरी झंडी दे दी | बडे पैमाने पर आवारा पूँजी उमड पडी जो कर्नाटक से कनखल तक सूबे सूबे में किसानी ज़मीन और नाज़ुक पहाडों पर हिडिंबाकार मॉल और बिल्डर फ्लैट बनवा कर बिल्डर लॉबी को राजनैतिक ताकतों का परम मित्र बनाती गई है | उत्तराखंड ही अपवाद क्यों रहता ? जल्द ही इस नये राज्य की त्वरित विकासशीलता सरकारी बहियों और पर्यटन जगत में देश भर के वित्तशास्त्रियों की सराहना का विषय बना | भागीरथी की बाढ ने इस टिकाऊ विकास के नतीजे उजागर कर दिये |

पडोसी नेपाल में भी यही शोर था | विकास की अवधारणा और भाषा वहाँ भी उधारी की ही थी | लिहाज़ा पर्यटन विकास के नाम पर एवरेस्ट शिखर की चढाई को माउंटेनियरिंग का चरम लक्ष्य बना कर ऊँचे भाव दुनियाभर के पर्वतारोहियों को बेचा गया | लगातार उछाल भरती टूरिस्ट इंडस्ट्री , अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों की आवाजाही देख शेरपाओं से लेकर सरकार तक सब प्रफुल्लित थे | इन पंक्तियों की लेखिका ने देखा कि न्यूयॉर्क के स्मार्ट सेट में कुछ ऑन लाइन पर्यटन एजेंसियों की बडी चर्चा थी जो शेरपाओं की मदद से हर गाहक को शिखर तक लेजाने की गारंटी देकर वहाँ से लैपटॉप पर अपनी यात्रा का ब्योरा पहुँचाने की भी फीस वसूल कर उनको अपने दोस्तों के बीच सुर्खरू होने का नायाब ऑफर दे रही थीं | आँख के अंधे और गाँठ के पूरे किस युग किस देश में नहीं होते ? शेरपाओं की कीमत बढी और आमदनी भी सौ फीसदी तक | ग्राम बूढों और महिलाओं ने सचेत किया पर पर्यटन विकास की आंधी के दौर में उनकी आवाज़ दब कर रह गई | कुछेक हताश बीबियों ने आत्महत्या कर ली | उनका डर सही साबित हुआ | आज एवरेस्ट शिखर पर फैला सभ्यता का कचरा और शेरपाओं की थोक में मौतों का सिलसिला एक मानवीय और पर्यावरणीय त्रासदी रच चुका है जिसे पलटना असंभव है | साधनों की गरीबी और आर्थिक लाचारी से जूझते स्थानीय लोग स्तब्ध हैं | अब पछताये होत क्या?

इन चुनावों में जब जब बडे दलों के बडे और बडबोले नेता विकास और सशक्तीकरण के नारे हवा में उछाल कर ‘हमने उनको यह दिया’, हमने राज्य में यह किया, कहते दिग्दिगंत गुँजा रहे थे और चैनल चैनल देश को त्वरित विकास के राजपथ पर लेजाने के मर्दानगीभरी मुद्राओं में आश्वासन दे रहे थे, कितने मीडिया महारथियों ने उनसे बारीकी में जा कर ज़मीनी सचाइयों के आधार पर उनसे सटीक जिरह की ? कितनों ने यह विसंगति सरल आमफहम भाषा में मतदाताओं के बीच पहुँचाने की ईमानदार कोशिश की कि सशक्तीकरण एक यात्रा का नाम है जिसके दौरान जनता खुद अपना आत्मविश्वास बहाल करती और अपना वाजिब हक लेती है | आप उनकी राह प्रशस्त कर सकते हैं उनको बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य और कार्यक्षेत्रीय सुविधायें देकर | उस घरेलू हिंसा और बाहरी हिंसा से उनकी सुरक्षा का वाजिब प्रबंध मुहैया करा कर जो उनको अपने संविधान प्रदत्त मानवीय अधिकारों, संचरण की आज़ादी और समुचित आर्थिक मेहनताना मिलने से लगातार वंचित करती रहती है | पर नहीं, जो अंग्रेज़ी में सवाल पूछ रहे थे उनको गरीबी का ज़मीनी गणित नहीं आता था, और जो हिंदी में सवाल तलब कर रहे थे वे काल्पनिक अदालत में चुटकुलानुमा सवालों या , आप जी को विपक्षियों ने चूहा या शेर या चायवाला कहा इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है ? तक ही सीमित रहे | भाषा , कवि ने सही कहा है सबसे अधिक यहीं भ्रष्ट होती है |

चुनाव निबटने के बाद हमारे यहाँ जिन लोगों को चुनाव के वक्त भारतीय भाषाओं में सबसे अधिक लक्षित किया जाता है उनको दुत्कारने का सिलसिला पुराना है | जब नई सरकार जिन्होंने चुनावी रैलियों के लिये थैलियाँ खोली उनको ही उपकृत करने की मुहिम में जुट जाती है | हम नहीं जानते इस बार कौन सरकार गद्दीनशीन होगी, लेकिन चुनावों में जिस तरह पानी की तरह पैसा बहा, अंग्रेज़ी चैनलों को साक्षात्कार के लिये जिस तरह हिंदीभाषी नेताओं द्वारा प्राथमिकता दी गई और परदेस में बसे अकादमिक और अर्थशास्त्री जिस तरह मीडिया में अपने नई सरकार को अपनी सेवाओं सलाहों की याद दिला कर खुद के आगे

के लिये बेहद उपयोगी होने की गोटियाँ बिछाने लगे हैं, उससे शंका होती है कि हम कहीं फिर अपनों को  चाबुक मार कर परदेसी बुद्धि के भरोसे विकास के नक्शे न बनाने बैठ जायें | ईश्वर मुझे गलत साबित करे तो अच्छा |

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