Monday 14 April 2014

Elections 2014


इन चुनावों में                                                 मृणाल पाण्डे

 

प्रधानमंत्री के पूर्व सलाहकार संजय बारू की किताब ने इन दिनों कांग्रेस विरोधी खेमे को संप्रग सरकार की कार्यशैली की बाबत काफी बारूद मुहैया करा दिया है | मज़ा यह कि विवादास्पद तथ्यों में से कोई भी ऐसा नहीं जिसे प्रतिपक्ष ने पिछले सालों में संसद से सडक तक लगातार न उछाला हो | पहला मुद्दा यह कि मनमोहन सिंह दस जनपथ के हाथों में थमे रिमोट पर निर्भर थे | माना कि थे , पर यह बात हर कोई जानता है कि देश के दोनो बडे दलों में राजगद्दी पर कौन ? तय  कराने वाली शक्तिपीठ कोई और ही होती है | यह उनकी कमज़ोरी के साथ उनकी सबसे बडी ताकत भी है जिसने उनके शासनकाल को टिकाऊ बनाया है | मोरारजी, चंद्रशेखर या देवीलाल हर गैर कांग्रेसी युग में मोर्चा बनने के बाद जो भी प्रधानमंत्री पद की शपथ लेता था , उसके खिलाफ शिखा खोले रहे जब तक सरकार न बदलवा दी | टिकाऊ शासन शास्त्री जी ,नृसिंह राव अथवा अटल जी ने दिया जिनका चयन फर्क तरह से किया गया , यही उनके बीच सद्भावना की वजह भी रही | एक गोष्ठी में अटल जी को नृसिंह राव ने अपना गुरु कहा तो अटल जी ने उनको अपना भी गुरुघंटाल बता कर उनकी मित्रतापूर्ण खिंचाई की थी | शायद बारू को कांग्रेस के लिये अंदरूनी तौर से इस पद का (घोषित या अघोषित) उम्मीदवार चयन लगभग एक राज्यक्रांति लगता हो , पर ऐतिहासिक साक्ष्य् जो कहते हैं हम वही दुहरा रहे हैं | सच यह है कि तमाम वैचारिक विरोध के बावजूद दोनो दलों के लिये आज भी उनके दल का (असली) नेता या तो 10 जनपथ की पहली पसंद होता है या केशवकुंज की | और एक बार घोषणा हो गई तो वह जन प्रतिनिधि नहीं, एकछत्र सम्राट् की हैसियत पाता है | इसीलिये सत्ता को निकट देखने के बाद बुज़ुर्ग नेता वनवास पर नहीं जाते | और बडे दलों में उन  को हाशिये में ठेलकर उनकी जगह नई पीढी नेतृत्व का लाया जाना किसी भूकंप से कम नहीं लगता |

बारू की स्थापनायें चौंकाती नहीं आम धारणा को पुष्ट ही करती हैं , जैसे कभी बलराज मधोक के खुलासों ने (भाजपा नेतृत्व के प्रसंग में) किया था | दरअसल सीधी रायशुमारी से जिस समाज में शादी ब्याह तक नहीं तय होते वहाँ शीर्ष नेता का चुनाव ही मुहल्ला सभाओं की मार्फत कैसे हो ? ‘आप’, जिसकी राय में नेता राजा नहीं और उसका चुनाव सार्वजनिक जनमत न्योत कर होना चाहिये, पा रही है कि खुले खेल फर्रुखाबादी वाला

फार्मूला भारत में नहीं जमता | लिहाज़ा पार्टी लोकतांत्रिक तरह से चुने नेता समेत कुल 49 दिन के बाद सत्ता से हटने को बाध्य हुई और अब उसे चुनने वाले हाथ उसे तमाचे मार रहे हैं कि हमारी राय का निरादर तुमने क्यों किया ?

बेशक बडे दलों द्वारा हाईकमानी चाबुक तले तमाम विरोधियों का मुँह बंद कर नेता विशेष के नाम पर मुहर लगाने की प्रथा मध्ययुगीन, प्रतिगामी और सामंती है, और योरोप या अमरीका के चुनावों जैसा सहज नेतृत्व परिवर्तन भारत के लिये नामुमकिन बनाती है | पर क्या हम अपने राज समाज की किसी राजगुरु के हाथों राजतिलक कराने की कालातीत रुझान को नज़रअंदाज़ कर सकते हैं ? पार्टियों तथा जनता को कठोर मेहनत के पक्षधर और पुरातनपंथिता विरोधी वैज्ञानिक सोच वाले नेताओं की बजाय किसी चिमटाधारी तांत्रिक या डमरूबजाऊ मजमेबाज मदारी की तरह धाराप्रवाह सम्मोहक भाषण देनेवाले, चुटकी भर भभूत से अकेले ही हर असाध्य रोग के इलाज का दावा करनेवाले और दल या देश में सदस्यता या  नीति निर्धारण के लिये (56, 46 या 36 इंची) सीना ठोंक कर सिर्फ अपनी राय को ही सर्वोपरि रखवानेवाले नेता सुहाते हों,तो पतनाला आखिरकार उसी जगह जाकर तो गिरेगा | इसके बाद भी अगर हम बिना नया कुआँ खोदे अपनी पसंद के पानी से ही प्यास बुझाने की इच्छा रखते हों , तो हमको पतनाले को कोसने की बजाय अपने इलाके के भूस्तर और जलप्रवाह के नियमों का अध्ययन करना होगा |

बारू के बहाने कांग्रेस,सपा,राजद,द्रमुक आदि में कायम वंशवाद और युवा शक्ति की अवहेलना पर विपक्षियों  द्वारा सोशल मीडिया पर काफी कुछ कहा जा रहा है लेकिन जो दल यह सब कह रहे हैं उन्होंने भी भरझोली टिकट नेताई रिश्तेदारों तथा 40 पार की उम्रवालों को ही दिये हैं | यानी इन रुझानों के चुनावी नफे को ज़मीन पर वे भी नहीं नकारते | वंशवाद निश्चित ही लोकतंत्र के लिये शर्मनाक है | लेकिन उसको दल चुनाव में कैसे नकार दें ? उखाडने की कोशिशों को अँगूठा दिखा कर भी खुला वंशवाद, भाई भतीजावाद और जातीय पूर्वाग्रह भारतीय राजनीति ही नहीं कार्पोरेट जगत और शास्त्रीय नृत्य संगीत तक में व्याप्त हैं ? जनता के बीच इन बुराइयों को मिटाने की अपील आप ज़रूर करें पर उनका सही विकल्प बनाने के लिये हमको उन वजहों की पडताल भी करनी होगी जिनकी तहत (जैसा भी है)हमारा लोकतंत्र आज भी औसतन 50 की आयु से अधिकवालों को ही मंत्रिमंडल में लाता है और हमारी तमाम शास्त्रीय कलायें तथा कई तरह का पारंपरिक ज्ञान अक्सर अलिखित होते हुए भी आज तक वंशवाद और गुरुपरंपरा के बूते ही चलाया जा रहा है | सलाहकार संजय बारू कहते हैं कि राजकाज चलाने में

 देश के वर्तमान प्रधानमंत्री के दिल में भी पारंपरिक वफादारी और औचित्य के बीच एक विचारमंथन चलता रहा | यह गौरतलब है कि न उनको चुनाव लडना था न ही नया दल बनाना था वे नेता से पार्टी और पार्टी से देश को बडा मान कर संसद के आगे अपनी विवशता की असलियत बयान कर वनवास में जा सकते थे,उनकी गरिमा को उनसे कौन छीन सकता था? पर आलोचना के बाद भी दलीय हाईकमान के हस्तक्षेप को सहज  मान कर राजकाज चलाना ही उनको बेहतर लगा | अब अगर हम उनको एक ईमानदार और विद्वान् व्यक्ति मानते हैं तो हमको यह भी मानना होगा कि शीर्ष नेता के प्रति वफादारी की जो ईमानदार ज़रूरत उनके भीतर थी वही बरस 2002 में गुजरात, या 2013 में उत्तरप्रदेश दलीय सदस्यों ने भी दिखाई , अकेले उनपर हमला कैसा ?

कुल मिला कर दर्द कमोबेश आज हर नागरिक हर नेता के मन में है : सपने अधूरे रह जाने का दर्द, किसी न किसी तरह की गैरबराबरी का दर्द, रोज़मर्रा की ज़िंदगी में भ्रष्टाचारियों , दबंग चाटुकारों के हाथों अपमानित होने का दर्द | उसके बारे में अधिक क्या कहा जा सकता है ? लेकिन इस सबके ऊपर आज़ादी के बाद से एक मर्मांतक डर भी सब पर हावी है : अलगाव का, विभाजन दोबारा झेलने का | जून 1946 में फिज़ां में  जो बिच्छू छोडे गये थे वे नहीं मरे, बिलों में दुबक भर गये थे और मौका पाते ही डंक उठाये बाहर निकल आये हैं | हम सुधी पाठकों का ध्यान इधर इसलिये नहीं खींच रहे कि हमको बदलाव या विकास पर जिरह से परहेज़ है | पर मतदाताओं को चाहिये कि वे भारतीय लोकतंत्र में समन्वय की ज़रूरत की गहराई समझें | बडबोले सवालों से फेंटे जा रहे राजनीति के सफेद स्याह विवेचन के परे जा कर समझें | ताकि चुनावी उत्तेजना की ओट में सत्ता के भूखे लोग अपने हित साधने को जिन्ना की तरह फिर उन बिखरावकारी प्रेतों को एकजुट न करवा लें, जिन्होंने देश को कई बार गृहयुद्ध की तरफ धकेला है |

1 Comments:

At 12 August 2014 at 00:22 , Blogger सुरेश पंत said...

सही विश्लेषण. 'चुटकी भर भभूत से अकेले ही हर असाध्य रोग के इलाज का दावा करनेवाले और दल या देश में सदस्यता या नीति निर्धारण के लिये सीना ठोंक कर सिर्फ अपनी राय को ही सर्वोपरि रखवानेवाले' सिंहासनारूढ़ हो गए यह अधूरे सपनों के पूरा होने के लिए दिखाया गया एक और सपना है. किसी देहरी-द्वार की प्रतिबद्धता के अपने सपने भी हैं. सपना कौन- सा सच होगा, यह देखना होगा. बिखराए हुए बिच्छू-बाण समेटने का या तो मन्त्र भुला दिया है, या अभी उनकी और ज़रूरत मानी जा रही है.


 

Post a Comment

Subscribe to Post Comments [Atom]

<< Home