Friday 24 April 2015

मीडिया अंतर्मंथन

                                         

सुना है कि पी एम ने विदेशयात्रा से लौट कर दल के सांसदों की क्लास ली और ताकीद की कि वे छिद्रान्वेशी मीडिया से दूर रहें | सुबह कुछ कह कर शाम तक उससे मुकर जानेवाले और बात बात में दुर्भावनामय षडयंत्रों की दुहाई देनेवाले नेता, अभिनेता, कार्पोरेट घराने सभी लगता है इन दिनों अपनी क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं की मुख्यधारा मीडिया में कवरेज को लेकर बहुत गुस्सा हैं | इसीलिये हाल के दिनों में कई मंत्री संत्री समय समय पर मीडिया को अभद्र विशेषणों से नवाज़ते देखे सुने गये हैं | मीडिया को प्रेस्टीट्यूट तक कह जाने वाले जनरल साहिब ने बाद को माफी तो माँगी लेकिन 10 फीसदी मीडिया को लेकर अपने विशेषण पर कायम रहे | उनको मीडिया से पंगा लेने में संयम बरतने को कहने की बजाय अहम बैठक में उनको यमन की कारगुज़ारी के लिये पीठ ठोंक शाबाशी मिलना यही रेखांकित करता है कि उन्होंने जो भी कहा उससे दल के कई लोगों के जलते हिये सहमत हैं | हर शाम इसके नये नये प्रमाण टी वी पैनल चर्चाओं में मिल जाते हैं | जलती लपटों के बीच किसी न किसी रसूखदार दल के प्रवक्ता का मीडिया को गरियाना देख कर बरबस प्रेमचंद याद आते हैं | उन्होने कभी किसान के संदर्भ में कहा था कि जिसकी सारी मेहनत और कमाई खुले आकाश के नीचे फैली रहती है उससे बदला लेना कठिन नहीं | इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक तक आते आते मीडिया पर भी यही बात लागू होती है | कोई मीडिया के लिये आचरणसंहिता बनाने का उपदेश दे रहा है तो कोई संविधान बदल कर अभिव्यक्ति की आज़ादी हटाने का मशवरा दे रहा है | कोई मीडिया को वेश्या कहता है तो कोई पालतू कुत्ता | असल बात पर कोई नहीं गौर करता | वह यह, कि आज कॉर्पोरेटाइज़्ड मीडिया उद्योग के मालिकान और संपादकीय टोलियों के रूपाकार और खबरों के विपणन के तरीके ही नहीं मीडिया के उपभोक्ता भी कतई बदलते जा रहे हैं | बाज़ार में उतरा मीडिया इनको अनदेखा करेगा तो पिट जायेगा | जिस समय नई मीडिया तकनीकी बिखराने की बजाय खबरों को लैपटॉप या मोबाइल पर समेकित कर परोसना संभव बना रही हो, खबरें जमा करने, उनके संपादन, उनको परोसनेवाले अंतर्संवादीय प्लेटफॉर्म, मीडिया उपभोक्ताओं का उनके साथ सघन द्विपक्षीय बातचीत का रिश्ता और युवा मंडली की चलते फिरते 24x7 बारह किसम की खबरें टूंगते रहने की इच्छा एकदम नयी चुनौतियाँ फेंक रहे हों, तो पहले की पत्रकारिता प्रतिमान बेमतलब बनेंगे ही | या तो नये से सीना ब सीना निपटिये, या रिटायर हूजिये !
अफसोस, कि हमारे मीडिया मुगल ही नहीं, अफसर तथा राजनेता अब तक नये मीडिया और उसके सबसे बडे उपभोक्ता वर्ग के चेहरे को, जो कि 14 से 40 के बीच की उम्र का है, साफ तरीके से देख ही नहीं पा रहे | न यह समझ रहे हैं कि कमर्शियल मीडिया के खबरों के नये स्रोत और संदर्भ किस तरह के हैं और कैसे काम करते हैं | खबर नापसंद हो तब भी बिना 2015 के शतमुखी मीडिया तथा उसके नवजात सहोदर सोशल मीडिया को समझे, लोकतांत्रिक विवादों को पुराने तरीकों से शांत, क्लांत या भ्रांत करना अब नामुमकिन है | चीन से लेकर मिश्र और अमरीका से लेकर योरोप तक के उदाहरण यह भी जता रहे हैं कि नये मीडिया को लताडना, उस पर रोक लगाना या उसका बहिष्कार करने का हर प्रयास अब नाकाम रहेगा | ट्विटर जैसे चंद लफ्ज़ों तक सिमटे लघुकाय खबरिया मीडिया मंच भी बहुत महत्व रखने लगे हैं | क्योंकि उनसे निकली हर खबर मिनटों में विश्वव्यापी बन जाती है | बचपन में एक बाल कविता पढी थी ,  शीर्षक था , ऑल वॉज़ लौस्ट फौर अ हौर्स शू नेल ( सब कुछ गँवाया बस घोडे की नाल की एक कील से ) | किस्सा मुख्तसर कुछ यूँ था | किसी महाप्रतापी राजा ने जंग में जाते समय अपने घोडे की नाल में ढीली पड चुकी एक कील की अनदेखी कर दी | ऐन मौके पर कील गिरने से नाल निकल गई और महाराजा जू का तेज़ तर्रार घोडा रपट गया | घोडा गिरा तो राजा को ताक में खडे दुश्मन ने तीर का निशाना बना लिया | राजा को यकायक धराशायी होते  देख सेना सर पर पैर रख कर भाग ली और यूँ महज़ एक ढीली कील की वजह से परम प्रतापी राजा जंग ही नहीं हारा , राजपाट के साथ जान से भी हाथ गँवा बैठा | दिल्ली राज्य में पिछले चुनावों में जिन राजनैतिक दलों ने सोशल मीडिया को मुख्यधारा का गरीब बिरादर मानने की हिमाकत की, उनको जल्द ही अपनी भूल का प्रक्षालन करना पडा और आज सबने अपनी विश्वस्त खबरें लोगों तक पहुँचाने के लिये नये मीडिया के खास प्रकोष्ठ बना लिये हैं | लेकिन गौरतलब है कि मीडिया के नये नौजवान उपभोक्ता कई दूकानों के पकवान चखने के आदी हो गये हैं | लिहाज़ा एक ही खबर को कई स्रोतों से जान कर ही वे अपनी अंतिम राय बनाते हैं | और फिर हाथ के हाथ उसको कई माध्यमों से जारी कर मुख्यधारा मीडिया में जगह बना लेते हैं | मानना ही होगा कि जिस तरह विकीपीडिया ने आकर सदियों पुराने एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका को ठिकाने लगा दिया उसी तरह सोशल मीडिया ने, जिसे कुछ लोग अब चौथे यानी मुख्यधारा मीडिया के स्तंभ की तर्ज पर लोकतंत्र का पाँचवां स्तंभ बताने लगे हैं, मुख्यधारा मीडिया का घटश्राद्ध कर डाला है | नये समय की पुकार यही है कि या तो नया मीडिया जॉइन करो या मरो !
पुराने मीडिया में सब कुछ दूध का धुला था और पाठकों तक पहुँचनेवाली खबरें लगभग पूरी तरह अनुभवी मीडियाकारों के हाथों से ही गुज़रने की वजह से विश्वसनीय और शोधमय होती थीं, यह भी पूरा सच नहीं | प्रोपेगैंडा मशीनें बहुत पहले से सरकारों का हथियार रही हैं, और मीडियाकारों की मातहती में सक्रिय कारपोरेट लाबियाँ भी | भारत में जिस पेड न्यूज़ को लेकर इतना कुछ कहा सुना गया , उसकी शुरुआत अमरीका में बहुत पहले हो गई थी जब 1902 में पूर्व पत्रकार विलियम वुल्फस्मिथ ने वाशिंगटन में जनसंपर्क एजेंसी बना कर कारपोरेट लॉबियों को सरकारी सोच की धारा स्वहित में मुडवाने के लिये राजनैतिक गलियारों में पहुँचा दिया था | रॉकफेलर के जनसंपर्क अधिकारी लेडलैटर ली भी पहले क्राइम रिपोर्टर थे और फिर जरमनी की एक कुख्यात केमीकल उत्पादक कंपनी बन गये जिसने हिटलर को बहुत तरह से मदद की | आज भारत में जो दल मीडिया को कोस रहे हैं खुद उनके बारे में खबर है कि प्रतिबंध से भयभीत कुछ ताकतवर तंबाकू कंपनियों ने पेशे से डाक्टर उनके एक बडे मंत्री को पद से हटवा दिया क्योंकि वे तंबाकू पर पूरी रोक लगवाने के पक्षधर बन गये थे | चुनाव काल में नेता जी की छवि चमकाने और रैलियों की भारी रिपोर्टिंग तय कराने को पेशेवर पी आर एजेंसियों का इस्तेमाल तो अब लगभग हर दल करने लगा है |
इस भारी हलचल के बीच कुछ गौरतलब मुद्दे यह रहे :
डिजिटल मीडिया ने जहाँ खबरों को लघुकाय व तेज़रफ्तार बनाया है, वहीं नये मंचों से जोड कर उसने आम पाठकों दर्शकों की निजी भागीदारी भी संभव की है | यह आगे जा कर अभिव्यक्ति की आज़ादी को धार देकर किसी भी लोकतंत्र को जनता के अधिक करीब ला सकती है |
हर साल बढती साक्षरता और लैपटॉप और मोबाइल गाँवों तक पहुँचने के बाद फेसबुक तथा ट्विटर या वॉट्सएप जैसे माइक्रो ब्लॉग मंच भी भारतीय मतदाताओं उपभोक्ताओं के लिये अपनी राय का दबाव बनाने की कई नई संभावनायें पैदा कर रहे हैं |
छपे शब्द की बजाय दृष्यगत खबरों से लोग अधिक जानकारी ले रहे हैं और नई तकनीकी भी अब नये सबस्क्राइबर मॉडलों, कैच अप्स तथा रिप्ले सुविधाओं से उनके लिये अपने पसंदीदा समय में खबरों का पारायण नई तरह से संभव बना रहे हैं | जो लोग या लुगाइयाँ काम धंधे की वजह से खबरों से कटे हुए रहते थे उनकी बडी भीड अब नये उपभोक्ता समूह बना रही है जिनकी रुचियों का दबाव जल्द ही दिखने लगेगा |
  

 


Sunday 12 April 2015

पशुबलि और पुनर्विचार



इस लेखिका का अभी अरुणाचल प्रदेश स्थित ‘पक्के’ अभयारण्य जाना हुआ | असम के नौगाँव जिले की अरुणाचल सीमा से सटे क्षेत्र में ब्रह्मपुत्र नद के उत्तर का यह सुरक्षित इलाका देश के बचे खुचे संरक्षित जंगलों में से एक है | गुवाहाटी से अरुणाचल जाते हुए पाँचेक घंटे लगे | इस दौरान यह साफ दिखा कि जहाँ जंगल खत्म होते हैं, वहाँ से सीधे गुवाहाटी तक, खेती और खेतिहर परिवारों का लंबा चौडा इलाका फैला हुआ है | बताया गया कि यह इलाका पहले जंगल था | गुजरे कुछ दशकों से लगातार यहाँ बाहरिया लोगों को बसाया गया | इससे जंगल बडे पैमाने पर काटे और खेत तथा घर बनाये गये जिससे वन्यजीव लगातार विस्थापित हुए | वे पशु, खासकर हाथियों के झुंड अब बगल से सटे वन से कई बार भटक कर खेती उजाडने और झोंपडियाँ ढहाने इन गाँवों में आते रहते हैं, खासकर जाडों में जब धान और ईख की फसल तैयार खडी होती है | इससे हर जाडों में भारी हाहाकार मचता है, जानें जाती हैं |
इन गाँवों में बसे अधिकतर परिवार वे हैं जो बिहार, नगा पहाडियों की कई जनजातियों, बांग्लादेश, म्यामार तथा नेपाल जैसी आबादी बहुल जगहों से उजड कर घर और रोज़गार की तलाश में यहाँ आये, और सरकार द्वारा इस उपजाऊ, किंतु खाली इलाके में बसाये गये | लोकल असमिया लोग इनसे बहुत खफा हैं, उनको इस सबके पीछे वोट बैंक की राजनीति दिखती है जिसकी तहत उनसे अलग सांस्कृतिक भूमिवाले परदेसियों को रहने बसने की जगह और राशन कार्ड तथा पशुपालन की सुविधायें बिना पर्यावरण क्षति पर विचार किये ताबडतोड दे दी गईं | उनका आरोप है कि आबादी के इस घालमेल के कारण इलाके में असमिया मूल के लोग बहुत घटे हैं और भिन्न धर्म और वन तथा पशुओं को लेकर उनसे फर्क विचार रखने वाले हिंसक प्रवृत्ति के जनजातीय तथा परदेसी गुटों की इलाके में भारी आवक हुई है | असमिया लोग तो सदियों से हाथियों की पूजा करते आये हैं और वन और वृक्ष उनके लिये पवित्र रहे | लिहाज़ा पिछली कई सदियों से जब तक इलाके में उनकी बहुलता थी, इस तरह जंगल काट कर उनमें खेती करना और वहाँ सदियों से निर्द्वंद्व पलते विचरते जानवरों को उजाडना या मारना, उनके लिये अकल्पनीय था | पर नई आबादी में बांग्लादेशी हैं जो इन परंपराओं से अनजान हैं | जनजातियों में बाहर से आये बोडो लोग ‘झूम खेती’ करते हैं | जिसकी तहत जंगल जला कर साफ की जगह में एक फसल लेकर खेत बस छोड दिये जाते हैं | जंगल दुबारा नहीं उग पाते | उधर बाहरिया नगा लोग सर्वभक्षी हैं | वे हर किस्म के जानवरों का शिकार करते हैं | चिडियों का तक | इन तमाम नई बातों से आज इलाके के वनों और जानवरों की आबादी को भारी खतरा हो गया है |
अभयारण्य में संरक्षकों, खासकर गैरकानूनी शिकारियों के खिलाफ तैनात स्टाफ से अंतरंग संवाद हुआ तो कुछ अन्य तरह की चौंकानेवाली जानकारियाँ मिलीं | एक तो यह, कि जंगली जानवरों में सदियों से असम की पहचान रहे हाथी, विशेषकर नर हाथी अपने दाँतों की वजह से आज गैरकानूनी तरीके से इन नवागंतुकों द्वारा नहीं, हाथी दाँत का व्यापार करनेवाले तस्करों द्वारा बडी तादाद में मारे जाते रहे हैं | और अब तो इन दिनों अरुणाचल सीमा पर चीनी पारंपरिक दवा उद्योग के लिये बाघ, भालुओं और खास चिडियों के दाँत, नाखून, जिगर और बाल तक की भारी मात्रा में तस्करी भी की जा रही है | इन चीज़ों की अपने यहाँ के वन्यजीवन को उजाड चुके पडोसी चीन में बहुत माँग है और तस्कर इसकी भरपूर कीमत पाते हैं | इलाके में बसाये गये परिवार वैसे देखा जाये तो काफी मेहनती हैं और इस उपजाऊ जलसिंचित इलाके में खेती के साथ मुर्गी, बत्तख और बकरीपालन सब एक साथ कर रहे हैं | स्थानीय लोगों ( जो तनिक आलसी माने जाते हैं ) के उलट वे भरपूर मेहनत से एक साथ एक समांतर (धान, दलहन, भाजी,पान वगैरा) और एक क्षैतिज (केला, सुपारी, आम, कटहल) फसल साल में दो दो बार उगा लेते हैं | उनकी मेहनत के फल से उनके गाँवों में आई उनकी समृद्धि कई लोगों को खटकती है और अब वे इसे पोलिटिकल रंगत देकर उनको बदनाम कर  रहे हैं | इलाके में विधानसभा चुनाव भी पास हैं, इसलिये भी उनके तथा सेना के खिलाफ न्यस्त स्वार्थी तत्वों द्वारा कई बार प्रोपेगैंडा किया जा रहा है |
सचाई जो हो, इसमें शक नहीं, कि इलाके में वन्य पशु खासकर हाथी खतरे में हैं | मनुष्य से कई हज़ार साल पहले इन वनों में हाथी रहते आये हैं | शाकाहारी हाथी हमेशा एक झुंडविशेष के सदस्य होते हैं और हर झुंड का अपना लीडर और कायदे कानून होते हैं जिनका पालन सारे हाथी करते हैं | एक कायदा यह है कि सदियों से उनके पुरखों ने चलते फिरते चरने के लिये कउच सुरक्षित गलियारे जंगलों में तय कर दिये हैं | इनके अपने जलस्रोत तथा जडी बूटियाँ होते हैं जिनसे सब हाथी परिचित होते हैं | यही नहीं, विचरते समय भी हाथी गुट सेना की टुकडियों की तरह खास फॉर्मेशन बनाये रखते हैं, जिसमें जनरल ( जो नर भी हो सकता है या अनुभवी उम्रदराज़ मादा भी) आगे चलते हैं, और उसके गिर्द ताकतवर युवा नर मादा हाथियों के रक्षात्मक दस्ते रहते हैं, गाभिन हथिनियाँ और शिशु गुट जत्थे के बीच में रखे जाते हैं | बाघ या घातक दुश्मन दिखते ही तुरत सबको खबर हो जाती है और व्यूहरचना होती है ताकि दुर्बल को खतरा न हो | हाँ, लडाई में चोटिल सदस्यों या नवप्रसूता हथिनियों को खतरे के बीच भी कभी त्यागा नहीं जाता | अब पूरे हिमालयीन इलाके में उत्तराखंड से असम तक और दक्षिण में केरल तथा तमिलनाडु में हर कहीं मानवीय आबादी बढने से वे सदियों बरस पुराने सुरक्षित गलियारे गायब हो चले हैं | यह होना हाथियों को बुरी तरह मानसिक दबाव में डाल रहा है | पेट भरने को वे उन पुरानी जगहों को टोहते नई रेल पटरियों के खतरे झेलते सीधे फसल से भरे खेतों तक जा पहुँचते हैं और गरीबों की खडी फसलों का आहार कर शेष अक्सर कुचल कर तबाह कर देते हैं | गाँव वाले उनको भगाने को जो कनिस्टर बजाते या पटाखे छोडते हैं, वे उनको और भी नाराज़ और उत्तेजित कर देते हैं | और कई बार ‘मस्त’ हुआ कोई एकाकी नर हाथी सामने खडे मनुष्यों को मारने पर उतारू हो जाता है | पर दिक्कत यह है कि सार्वजनिक विकास कामों : सडक, बिजली खंभे, रेल लाइन आदि खडे करने को ज़मीन ज़रूरी है | खेती की ज़मीन नहीं मिल सकती तो जंगलों में इन कामों के लिये गलियारे बनाये जा रहे हैं वर्ना इलाका पिछडा रह जायेगा | अनुभवी वन्यजंतु संरक्षण से जुडे विशेषज्ञ यह सब समझते हैं | लिहाज़ा वे स्थानीय विकास की ज़रूरत समझते हुए वन्य जीव रक्षा पर आज सरकार से टकराव की बजाय सहयोग की नीति पर बल देने लगे हैं | मसलन वे किसानों तथा हाथियों की पीडा जहाँ तक हो सके, कम करने के लिये राज्य सरकारों को हाथियों के लिये पुराने सुरक्षित गलियारों की बहाली की सलाह दे रहे हैं, जिसका फायदा दिख रहा है | वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया जैसी गैर सरकारी संस्था आज केरल, असम, अरुणाचल, नगालैंड, उत्तराखंड तथा उत्तरप्रदेश के सरकारी फॉरेस्ट गार्ड्स को भी खास ट्रेनिंग दे रही है ताकि वे इन गलियारों के नियमित मुआयने करते रहें, रेलवे ड्राइवरों को हाथी दस्ते पटरी पर होने की पूर्व सूचना दें, और तस्करी को भी सेना अथवा लोकल वन पुलिस की मदद से रोकें | पिछले दो सालों से उत्तराखंड में एक भी हाथी रेल पटरी पर नहीं कट मरा |

अंत में एक रोचक गौरतलब ब्योरा | कम लोग जानते हैं कि महिला तथा बालकल्याण मंत्री मेनका गाँधी (जो पशु कल्याण व संरक्षण के विषय से लंबे अर्से से जुडी रही हैं)ने प्रतिरक्षा मंत्री जी को एक पत्र में सुझाव दिया है कि सेना की 39 गुरखा बटालियनें तथा कुमाऊँ –गढवाल रेजीमेंट भी हैडक्वार्टर में हर साल दशहरे या पर्व विशेष पर दी जानेवाली पारंपरिक पशुबलि की प्रथा पर रोक लगाने पर विचार करें | गौरतलब है कि 30 भारतीय गुरखा बटालियनों ने भारत की आज़ादी के समय भारतीय सेना में शामिल होना तय किया था | भारत से इंगलैंड तक आज भी गुरखा सैनिक वीरों के शिरमौर माने जाते हैं | अब इंगलैंड सरकार की गुरखा बटैलियन ने यह तय किया है कि वे पशुहित की तहत सदियों से वहाँ निर्द्वंद्व पलते विचरते अब पशुबलि नहीं देंगे न ही लडाई के दौरान मैदान पर मौजूद सैनिकों के खाने के लिये जानवर पहले की तरह हवाई जहाज़ से फेंके जायेंगे | क्या हमारे गुरखा भाइयों द्वारा भी इन प्रथाओं पर कोई पुनर्विचार संभव है ?