Tuesday 23 September 2014

नवरात्रि की पूर्व संध्या पर कन्या चिंतन

नवरात्रि की पूर्वसंध्या पर कन्या चिंतन                             मृणाल पाण्डे

बाघ हमारा राष्ट्रीय पशु है | आरक्षित श्रेणी में आता है | चूँकि उसकी खाल , हड्डी , दिल गुर्दा सबको एशियाई बाज़ारों में भारी मुनाफे पर बेचा जा सकता है पिछले सालों में लालची तस्करों ने बडी तादाद में बाघों की चोरी छुपे हत्या कर अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों में उनके अवशेषों की इतनी कालाबाज़ारी की, कि यह प्रजाति दुर्लभ हो चली थी | तब ‘ बाघ बचाओ ’ की बडी मुहिम छेडी गई जिससे तमाम स्कूल , टीवी चैनल और एन जी ओ  आ जुडे | तस्करों पर छापे पडे , पकड धकड की गई और मीडिया को जन चेतना जगाने वाले विज्ञापनों से पाट दिया गया | अब खबर आई है कि बाघों की तादाद लगभग हर संरक्षित वन में बढ रही है | बधाई | लेकिन लगता है कि लडकियाँ तो समाज की नज़र में जीते जी या मृत, दोनो हालतों में बोझ ही बनी हुई हैं | इसी दौरान देश में 0 से 6 साल की उम्र की बच्चियों की तादाद तेज़ी से घट गई है | क्योंकि पुष्ट प्रमाण दिखा रहे हैं कि कन्या शिशु हर राज्य में उपेक्षित - अरक्षित है, सबसे ज़्यादा अपने ही घर के भीतर | लिहाज़ा गर्भ में लिंग निर्धारण के बाद गर्भपात द्वारा , जन्म ले भी लिया तो गुपचुप सौरी में , और फिर भी न मरी तो लगातार उपेक्षा और कुपोषण से सुखा कर इतनी लडकियाँ हर साल पाँच की होते न होते मर रही हैं कि ताज़ा दस साला जनगणना के सरकारी आँकडों के अनुसार 0 से 6 साल के आयु वर्ग में वर्ष 2001 में जहाँ 1000 लडकों के पीछे 927 बच्चियाँ थीं, आज सिर्फ 914 बची हैं | कहने को देश में औरत मर्दों के बीच औसत लिंगानुपात में सामान्य सुधार हुआ है | लेकिन यह सांत्वना का विषय नहीं | पिछले दस सालों में आबादी में औरतों की तादाद बढी दिखने की असल वजह यह है कि इन बरसों में कुल आबादी भी बढी है | बच्चियों के क्रमश: लोप होने के असल आँकडे तो कुल वयस्क औरतों , मर्दों के बीच आबादी में बडे असंतुलन के रूप में तनिक आगे जाकर उजागर होंगे |
यह भी चिंता का विषय है कि बच्चियों की तादाद जिन राज्यों ( द . दिल्ली , हरियाणा , पंजाब , जम्मू काश्मीर , दादरा नगरहवेली , नगालैण्ड , मणीपुर तथा सिक्किम ) में सबसे तेज़ी से घटी है , उनका स्तर आर्थिक , स्वास्थ्य कल्याण सुविधाओं और शैक्षिक पैमानों पर देश के सामान्य औसत से बेहतर है | यानी मात्र पिछडे राज्यों में व्यापक गरीबी और अशिक्षा के कारण उतनी बच्चियाँ नहीं मर रहीं जितनी कि खाते पीते तरक्की कर रहे राज्यों में खाते पीते लोगों के बीच | कन्या भ्रूण का पता करने की खर्चीली निजी चिकित्सा सुविधाओं की ( गैरकानूनी ) मदद लेते हुए जन्म से पहले ही गर्भपात करवा कर उनके घरों में इतने बडे पैमाने पर बच्चियों का ऐसा सफाया हो गया है कि अब पंजाब या हरियाणा सरीखे राज्यों में नवरात्रि में कन्या पूजन को आठ कन्याएं जुटाना भी कठिन है | विडंबना देखिये कि अनचाही मानते हुए भी कन्या को पूजने की पुरानी परंपरा हमारे यहाँ हर जाति धर्म के लोगों के बीच मौजूद है | बढती शिक्षा दर और परिवार तथा माता पिता का सहारा बनती जा रही कमासुत लडकियों की तादाद में भारी बढोतरी के बावजूद नवजात के आने की खबर मिलते ही परिवार जनों और पडोसियों से लेकर दाई और बधावा गाने वाले किन्नर तक सभी अपनी फीस या नेग इस आधार पर वसूल करते हैं कि लडका हुआ या लडकी ? ‘लडका’ कहते ही उल्लास छा जाता है , दाई किन्नर भरपूर नेग माँगने लगते हैं और पडोसी दावत | पर बेटी के आगमन की खबर पाने पर सकपकाई करुणामय प्रतिक्रिया होती है : चलो जी जान बच गई , कोई नहीं जी , चलो जो ऊपरवाला भेज दे | कोई न कोई यह भी कह ही देता है कि ‘हाय घर पर डिक्री आ गई बेचारों के |’ जादू मंतर, राख भभूत के बाद भी तीसरी चौथी बेटी हुई तो रोना धोना और प्रसूता की कोख को कोसना चालू |
बच्चियों की लगातार घटती आबादी कहीं इसका भी डरावना प्रमाण है कि हमारे यहाँ कानून का डर खत्म होता जा रहा है | कन्याभ्रूण की हत्या ही नहीं, आधी आबादी को गरिमा से जीने का हक देने के लिये दहेज, यौन उत्पीडन अथवा वेश्यावृत्ति निषेध कराने वाले सुधारवादी कानून अपने यहाँ आज भी कमोबेश एक किताबी कवायद ही हैं | अगर हमारे राज समाज में सच्ची आदर्शवादिता होती तो शायद सुधारवादी कानूनों का फायदा उठा कर हमारे शिक्षा संस्थान और महिला आरक्षण से लैस पंचायतें महिलाओं के महत्व को एक प्रखर राष्ट्रीय सचाई की शक्ल दे सकते थे | लेकिन जहाँ जान ही नहीं वहाँ प्रखरता कैसी ?हमारी शिक्षा और पंचायती राज इकाइयों में ( आरक्षण के बावजूद ) जान नहीं मेरी यह बात एक उलटबाँसी लग सकती है | लेकिन सच तो यह है कि हमारे राज और समाज में ताकत का असली स्रोत आज भी जाति और निजी कानूनों पर टिकी वे तमाम संस्थायें हैं जिनकी कमान पुरुषों के हाथ में है | उन खापों, जातीय पंचायतों या धार्मिक गुरुओं के दिये फतवों का वज़न हमारे लोकतांत्रिक संविधान , कानून , और निर्वाचित पंचायत पर लगातार भारी साबित होता रहता है | संसद, विधानसभा, घरों , चायखानों या टीवी के रियालिटी शोज़ में झाँकने पर हमारी सीधी मुलाकात पुराने ठिकानेदारों , सामंतों और जागीरदारों की मानसिकता से होगी | इन नये सामंतों को आज डबल रोल मिल गया है : एक तरफ नये और युवा शाइनिंग इंडिया की चमक बनाये रखना , और दूसरी तरफ यह सुनिश्चित करना कि पुराने अजर अमर सामाजिकता वाले हिंदुस्तान की परंपराओं को नारीवादी धारणाओं से खरोंच न लगे | लिहाज़ा वे अपने क्षेत्र में धर्म , गोत्र आधारित खाप पंचायतों और मुल्लाओं के हुक्म से प्रेम विवाह को दंडित कराना या कालेज की लडकियों के लिये जीन्स पहनने पर पाबंदी लगाना भी स्वीकार करते हैं , और अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर स्त्रीशक्ति का गुणगान करते हुए महिला थानों का उद्घाटन कर महिलाओं को साइकिलें , मशीनें बाँटते फोटो खिंचाते भी नज़र आते रहते हैं |
त्रस्त महिलायें जब न्याय खोजती हैं तो उनको इन तथाकथित सशक्तीकृत स्कूलों , पंचायतों या महिला थानों में कोई आशा की किरण नहीं दिखाई देती | उनको तो जान और आबरू बचाने को , जो कई बार परम भ्रष्ट किंतु सर्वसत्तावान चक्रवर्ती हैं उनके  पैर पकड कर उनसे न्याय माँगना अधिक आश्वस्तकारक लगता है | क्या उन शिखर नायकों के निजी हस्तक्षेप के भरोसे अपने ही परिवार द्वारा डाक्टरी मदद से देश भर में मारी जा रही बेज़ुबान लडकियों को बचाया जा सकता है ? मदर टेरेसा ने एक बार कहा भी था कि अगर कुदरती रक्षक ही बच्चे को नहीं बचाना चाहते तब तो उसे कोई नहीं बचा सकता | क्या देश समाज को अपनी बेटियों की बाघों जितनी फिक्र भी नहीं होनी  चाहिये ?
नवरात्रि की पूर्व संध्या पर दिल्ली के चिडियाघर में में सफेद बाघ के मारे युवक के लिये तो सुरक्षा से लापरवाह प्रशासन द्वारा कहा जा रहा है कि वह तो विक्षिप्त था, बाघ के नरभक्षी होने का कोई प्रमाण नहीं | उधर बलात्कार बढ रहे हैं जिनको लेकर एक बहुत नामी नेताजी का कहना है कि लडकों से गलतियाँ तो होती रहती हैं |
इस नवरात्रि ‘स्त्रिया: समस्ता: सकला जगत्सु तव देवि भेदा:’ जपनेवाले लोग क्या तनिक इस पर भी ध्यान मनन करेंगे ?   
 


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