Language and Politics in India
भाषा की राजनीति, राजनीति की भाषा मृणाल पाण्डे
खुद को
भारत माता, मातृप्रदेश और मातृभाषा के जनूनी पूजक प्रचारित करते आये हमारे बडे
नेताओं द्वारा अपने (बहुप्रतीक्षित एक्सक्लूज़िव) साक्षात्कारों के लिये नामी
गिरामी अंग्रेज़ी चैनलों को चुनना आप सबको भी शायद मेरी ही तरह अजीब लगा होगा |
इससे भी अधिक चौंकानेवाली बात यह, कि हर कहीं विनम्रता से अंग्रेज़ी में पूछे जा
रहे सवालों के जवाब नेताओं ने ठंडी आक्रामक ठसक के साथ हिंदी में दिये | काय भैया,
अगर आप लोगान कूँ दिल को खेंच कर हिंदी में ही अपने दिली जज़्बात का अक्स वगैरा
दिखलाना था तो क्यों नहीं आप वेष्टी (लुंगी) सँभाल हिंदी चैनल पर उतरे? (लेखिका
द्वारा दकनी हिंदी का यह प्रयोग शायद हिंदीपट्टी की राष्ट्रीयता को साबित करे) | आखिर
भारत के कई सूबों, उनके कई तरह के संप्रदायों से उठनेवाली आवाज़ों ने ही तो मिल कर
वह हिंदी बनाई है, जिसके फज़ल से, ऊपरवाला झूठ न बुलवाये , अपने हिंदी चैनलों से
लेकर हिंदी फिल्मों तक की लोकप्रियता इनके अंग्रेज़ी संस्करणों से कई गुना अधिक है
| इसलिये हिंदी की नाक को सीधे न पकड कर अंग्रेज़ी के द्रविड प्राणायाम से पकडने
की यह राजनीति हम हिंदीवालों को कुछ हजम नहीं हुई |
यह सही
है कि भारतीय भाषायें, खासकर हिंदी इस चुनावी समय में कई तरह की राष्ट्रीयताओं, भावनाओं
की गर्मागर्म लपसी बन चली हैं | और मुख्यधारा ही नहीं सोशल मीडिया में भी उसे
इस्तेमाल करनेवाले लोग लगातार उसके विभिन्न प्रकारों से कई तरह की पुरानी नस्ली
लाग डाँट साध रहे हैं | यह सब हिंदी के समन्वयधर्मी मिजाज़ के खिलाफ है जो तमाम
तरह की बोलियों भाषाओं को हमेशा से बहुत खुशी के साथ अपनी शब्द संपदा में शुमार
करती रही है | राजनीति के कढाह में पकती नई भाषाई लपसी अहिंदीभाषी बापू अथवा काका
कालेलकर सरीखों की मिली जुली हिंदी की सहज मिठास नहीं | अंग्रेज़ी की खिडकी से
हिंदी के ताज़ा चुनावी इस्तेमाल के पीछे नेताओं द्वारा ग्लैमरस उच्चवर्ग तक अपना
वज़न साबित करने की अदम्य कामना है | इसीसे उसमें अनचाहे एक कडवाहट घुल गई है, जो
शायद साक्षात्कार दे रहे नेताओं के मन में व्याप्त, ‘तुम’ मूर्ख अंग्रेज़ीपरस्त अल्पसंख्यक
बनाम (मातृभाषा के पुजारी, विमल बी ए पास नुमा) ‘हम’ बहुसंख्यकों के हिकारती विचार
की उपज है | साक्षात्कार दे रहे इन नेताओं के जवाबों में हमको हिंदी पट्टी या अहिंदीभाषी
क्षेत्र के आम जन से सहज संवाद की इच्छा नहीं दिखी | न ही उसमें दबंग जिरह करते
हुए भी जेटली, रविशंकर, सिब्बल या प्रशांतभूषण सरीखे नेताओं की अंग्रेज़ी
मीडियाकारों से लंबी पहचान का सामाजिक स्वीकार था | अंग्रेज़ी मीडिया तथा
संवाददाताओं को लगातार जली कटी सुनाते हिंदी के इन नवदबंग राजनैतिक पहरुओं पर
अंग्रेज़ी के सुविधासंपन्न चैनलों पर अपनी शर्तों पर आने और फिर राजनैतिक हिंदी का
फरसा चलाने की क्षमता दिखाने की ज़िद हावी थी | मज़ा देखिये यही नेता विगत में
हिंदीक्षेत्र के भैय्याओं को मराठी या गुजराती में कोस कर अपने इलाके की अवनति के
लिये कोसते रहे हैं |
सच तो
यह है कि भारत में मध्यकाल से लेकर आज तक जब कभी केंद्रीय राजनैतिक सत्ता टूटने
लगी है, उस समय अंग्रेज़ी तथा तमाम भारतीय बोलियों भाषाओं को चुपचाप अपनी माला में
पिरोती रही सहज हिंदी का साहित्य और मीडिया( जिसमें फिल्में भी शुमार हैं) राष्ट्रीय
एकता का सर्वमान्य पुल बन कर खडा रहा है | गदर और गर्दिश के बीच पटियाले से पटना
तक और काश्मीर से कन्याकुमारी तक दिलों को एक तरह से धडकते रखना राजनैतिक या मूढ
रूढिवादी धार्मिक ताकतों के बस का काम नहीं था | इस काम का श्रेय हमारे संगीतकारों,
लेखकों, कवियों और पत्रकारिता को है | आज हिंदी का राजनैतिक प्रयोग कर रहे नेताओं
या उनसे चिपके हिंदी संस्थानों का दोष यह नहीं कि वे दरबारी हैं, बल्कि यह कि वे
अधूरे हैं और रहेंगे | क्योंकि कानूनन हिंदी तबतक राजकाज से एकाकार नहीं हो सकती
जबतक अहिंदीभाषी राज्य उसे संविधानप्रदत्त ओहदा देने पर एकमत नहीं होते | कानूनन
स्वीकृत भारतीय भाषाई माध्यम के अभाव की ही वजह से अंग्रेज़ी ही आज भी कानून से
लेकर प्रशासन , प्रबंधन, इंजीनियरी और तथा डाक्टरी की पढाई का अनिवार्य माध्यम है
| क्षेत्रीयता के नाम पर अंग्रेज़ी या हिंदी को राजनीतिक भाषणों में शर्मसार करने
वाले तमाम नेता खुद भी काम के वक्त उनको ही खोजते फिरते हैं | अभी हाल में हिंदी
की एक प्रति्ठित कहानी पत्रिका के समाजवादी संपादक का निधन हुआ | उनकी इकलौती बेटी
ने उनकी पत्रिका के एक ताज़ा अंक में अपने दिवंगत पिता को एक मार्मिक पत्र लिख
पूछा है, आपने खुद अंग्रेज़ी का विरोध करने के बाद भी मुझे अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल
में पढने क्यों भेजा ? आपकी विरासत का बोझ उठाना मेरे लिये यह बात ने कितना दूभर
बना देगी क्या यह आप नहीं देख पाये ?
अंग्रेज़ी
पर गदा भाँजते नेताओं की दामी सूट ,स्कार्फ, हैट बूट पहने कई फोटुएं खिंचवा कर
बँटवाई जा चुकी हैं | जिनके वंशधर हैं, वे उनको अंग्रेज़ी माध्यम स्कूलों तथा
विदेशी कालेजों में ही भेजते हैं | तब वे लोग जिनको मीर ने मुंतखिब ए रोज़गार (
नौकरी की ताक लगाये) कहा था ही अपवाद मान कर क्यों कोसे जायें ? अगर
अंग्रेज़ी को गाँधी की सलाह मान कर आज़ादी के साथ ही अस्वीकार कर दिया गया होता
तो शायद यह दमघोंट झमेले न होते | पर वोट जुगाडने की ताकत की बतौर हिंदी का उठना,
जबकि दिल्ली गिर रही है, उसे समन्वयवादी और विनम्र नहीं हेकडीबाज़ बना रहा है जो
शुभलक्षण नहीं | उसके भाषणबाज़ राजनैतिक सरपरस्त हिंदी को अपने मिजाज़ में ढाल कर
उसे अहिंदीभाषी भारत को और रुसवा करने की, क्षेत्रीयता के दायरों को और तंग बनाने
की, या फिर निरंतर अलगाववादी सियापे करने की मुद्रा दे रहे हैं, जो आगे चल कर भाषा
को क्षुद्रता
देगी |
उर्दू अंग्रेज़ी और फारसी को खारिज करना सिर्फ खुसरो मीर ज़ौक
गालिब, को ही खारिज करना नहीं, उन तमाम और भाषाओं के ज्ञान को भी खारिज करना है
जिसके बडे लेखक हमतक अंग्रेज़ी की मार्फत पहुँच रहे हैं | यह नकचढी अलगावभरी हिंदी
तो बहुत करके नये नकचढे राज्याश्रयी लेखन और राजनैतिक परिवार से बीन कर भरे गये
सदस्यों वाली अकादमियों की परंपरा को ही पुष्ट कर नये चाटुकार व दरबारी ही बनवा सकती
है |
हल
क्या है ? अभी इस सवाल का जवाब देना संभव नहीं | अलबत्ता हिंदी पर इतनी चर्चा से
यह तो (उम्मीद है) साफ हो ही गया होगा कि भाषा कोई बनी बनाई या उधार पर ली गई चीज़
नहीं, एक गतिशील प्रक्रिया है | इसका कोई एक स्वरूप सब पर लागू करना असंभव है |
खासकर सरकारों की हिंसात्मक उठापटक से भरी राजनीति की मार्फत | भाषा न तो राजनीति
है, न धर्म | उसकी रचनात्मकता ,चिंता और उल्लास का केंद्र मनुष्य है- सीधी सादी
ज़िंदगी जीनेवाला मनुष्य | जो घर के भीतर बाहर प्रेम और झगडे ,वीरता या कायरता ,
दल या नेता सब लिये दिये जीता है, फिर मोहभंग होने पर छटपटाता है ! अमेठी के
कालजयी कवि जायसी चित्तौड दुर्ग के खंडहरों की तरफ इशारा कर सदियों पहले भाषा की
यात्रा की कहानी हमें बता गये :
कोई न
जगत जस बेचा, कोई न लीन जस मोल |
जो यह
पढै कहानी, हम सँवरे दुई बोल ||
1 Comments:
आज के हालात में कोई भी व्यक्ति अपने बच्चे को अंग्रेजी स्कूल में भेजना चाहेगा। केवल हिंदी पढ़ाकर बच्चे का भविष्य क्यों बिगाड़ें? यह सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था का दोष है कि हम केवल अपनी भाषा पढ़कर आगे नहीं बढ़ सकते। यह दोष चीन, जापान और कोरिया में क्यों नहीं है? सच यह है कि हमारी मौलिकता हर ली गई है। हम अंग्रेजी में कितने ही पारंगत हो जाएं, मौलिक होने के लिए अपने तरीके से सोचना पड़ेगा। विज्ञान की शिक्षा जबतक बच्चों को उनकी भाषा में नहीं दी जाएगी, तबतक हम नकलची बने रहेंगे। यह विडंबना देश के इंजीनियरी क़लेजों में देखी जा सकती है, जहाँ तमाम मेधावी बच्चे फर-फर अंग्रेजी न बोल पाने के कारण हीनता के शिकार हो जाते हैं। हमारे देश में आज भी जो अंग्रेजी बोले उसे ज्ञानी माना जाता है। यह पूरे समाज का हीनता-बोध है।
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